Tuesday, July 20, 2010

नफरत की आंधी


ये कविता अपनी भारत माँ के बटवारे की खिन्नता में कारगिल युद्ध के समय पर लिखी है . १२ साल बाद इसको इस ब्लॉग में पब्लिश करने की कोशिश की है  
आपके अभिप्राय की अपेक्षा

एक माँ की थी दो संतान
फूलो सी थी उनकी मुस्कान
प्यार था उन दोनों में ऐसा 
कम थी कुबेर की सोने की खदान 
       बच्चे थे जब वे छोटे
बोल बोलते मीठें  मीठें
दोनों जब सो जाते 
अखियाँ मींचे माँ की आँचल के नीचे 
      जब वे दोनों किशोर हुए
विचार भी उनके भिन्न  हुए
पर दिल कभी अलग न हुए
सिर्फ उमंग के थे मन में दिए जले
       एक दिन एक व्यापारी आया
उसने उनको हीरों का लालच दिखलाया
साथ में नफरत की आंधी आई 
बात न उनके समझ में आई 
दोनों थे भाई भाई 
मनो बन गए निर्दय कसाई 
        दोनों गए वह माँ के पास
दोनों को थी माँ की आस
बोल रहे थे वे इतराके 
माँ जायेगी तू मेरे साथ
     दिल दहल उठा माँ का
 उसने उन दोनों को देखा
खून जल रहा था उसका
 पर समझाना नहीं था उसके बसका
         उसने एक कुल्हाड़ी लायी
कट गयी वह पावन माई 
बोल रहा था दिल उसका 
मेरे प्यारो मेरे दुलारों 
ना मारो एक दूजे पर
घाव न करो मेरी कोख पर 
               दोनों थे वे पागल
            एक ले गया मन माँ का कोमल
एक ने तन वह घायल
             पर मन तन साथ तो है ये काया 
             पगलो की ये समझ में आया
             पछतावे ने ना दोनों को मिलाया
             उठ गया माँ की आंचल का साया
अब दोनों रहते है पास पास
बीच काटों की दिवार है ख़ास
खेल हो गया वह व्यापारी का
भस्म हो गया वो पावन निवास 


जयदीप भोगले
मे    १९९९  

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