Monday, August 9, 2010

कोहरा

हद पार कर दी मैने
और मुझे पता भी न चला

एक कश कि ही यह कश्मकश
ये नशा ही बुरी बला
    धुए कि साथ से सासें हुई थी गर्म
पार कोहरे मी पहुंचने का पता भी न चला
नशीली दवा के गर्दिश मे
दुआ का भी न साथ मिला
      रंगीनीयात के खिचांव से 
रंग बेरंग होने का शुरू हुं सिलसिला
गर्द के दम से दिखाई थी मर्दानगी मैने
जीवन जर्द बनने का पता भी न चला
   खुशनुमा जिंदगी का सपना आंखो मे ही रह गया
आंखे बंद होने का मुझे पता भी न चला
अब रूह भी कांप उठती ही नशे के खयाल से मेरी
उसी रूह को शरीर का सहारा न मिला
जयदीप भोगले , हिंदी , कोहरा, कविता
२० जुलै १९९९

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