हद पार कर दी मैने
और मुझे पता भी न चला
एक कश कि ही यह कश्मकश
ये नशा ही बुरी बला
धुए कि साथ से सासें हुई थी गर्म
पार कोहरे मी पहुंचने का पता भी न चला
नशीली दवा के गर्दिश मे
दुआ का भी न साथ मिला
रंगीनीयात के खिचांव से
रंग बेरंग होने का शुरू हुं सिलसिला
गर्द के दम से दिखाई थी मर्दानगी मैने
जीवन जर्द बनने का पता भी न चला
खुशनुमा जिंदगी का सपना आंखो मे ही रह गया
आंखे बंद होने का मुझे पता भी न चला
अब रूह भी कांप उठती ही नशे के खयाल से मेरी
उसी रूह को शरीर का सहारा न मिला
जयदीप भोगले , हिंदी , कोहरा, कविता
२० जुलै १९९९
No comments:
Post a Comment