फूल कि चाहत थी हमें काटो की इनायत मिली
सोचा था ये चाहत हमें संवारेगी
भटकती नाव एक दोर से बांध लेगी
दिल की लगी को बना दिया दिल्लगी उसने
भोली सूरत से नफरत हि मिली
जाना था बहाव के सहारे दूर कही
साहिल हि मिलेगा यह दिल की थी अनकही
मौत भी आई तो भंवर समेट लेगा हमें
यही थी दिल की दुहाई.
पर भंवर की आगोश भी न हुई नसीब किनारे पे एक आशिक की मौत मिली
तकदीर से नही है गिला
ये तो लकीरे हि लिखति है सिलसिला
लकीर ने बांधी थी कच्ची डोर प्यार की
जिंदगी कटी पतंग बन के रह गयी
जयदीप भोगले
२५ मे १९९९
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