Tuesday, March 8, 2011

उलझन या सुलझन



लग्न कदाचित स्त्री च्या आयुष्यातला सर्वात रोमांच आणणारा क्षण .. कदाचित हे आरेंज मंरेज साठी जास्त लागू पडेल ..
पण जेव्हा स्त्री आपले सर्व आप्तेष्ट सोडून एका नवीन संसारात जाते त्यावेळी लग्न कुठल्या पद्धतीन झाले त्याला कदाचित काही महत्व आहे ..
अशा लग्नाच्या आधीच्या रात्री नव वधू च्या मनात काय विचार येत असतील हे या हिंदी कवितेत लिहण्याचा प्रयत्न मी केला होता
ऐन तारुण्यात , पुरुषाचा जन्म घेऊन अशी कल्पना करणे मला खरच खूप अवघड गेले .. कवितेचा प्रासाद तितका चांगला आहे का नाही ते आपण ठरवाल .. पण मला हि कविता  माझा एक वेगळा प्रयत्न म्हणून खूप जवळची आहे .. आवडल्यास प्रतिक्रिया .. न आवडल्यास चर्चा  नक्की आवडतील ..

जे डी



किस सोच मे पडी है आज तू 
जा रही है कल परदेस
पराया हो जाएगा बाबुल का घर
अपनाना है पिया का देस




कितनी ख़ुशी की है यह घडी
पर समय क्यों नहीं बताती है ये 'घडी'
विचारमंथन में अटकी हूँ मै
दुल्हन का अहसास जी रही हूं मै

हर्षोल्हास में है  रिश्ते मेरे
पर जीवन की शुरवात है मेरी
हर्षित पराये क्यों है सारे
लहरा रही फुल की मालाएं
चमक रही है साड़ी दिशाएं 
लाडोरानी थी इस घर की मै
संवारना होगा मुझे पहनके लाज का भेस

एक सपने जैसी है कल की भोर 
मंगल वादन होगा चारो ओर
सात फेरे कल चलूंगी मै
जिसके दम पे जीवन यात्रा आरम्भ करुँगी मै

सुशोभित होंगे सारे
सजायेंगे मुझे मेरे अपने प्यारे
मेहँदी भी कल रंग लाएगी
मोती की माला भी चमक जायेगी
पर क्या जीवन का हल होंगे ये सारे
इस प्रश्न ने किया है मन में प्रवेश 

एक अजनबी के साथ
बसर करना है मुझे 
परमेश्वर की प्रतिमा होगा क्या वह
या मानूंगी मै पति परमेश्वर उसे
सुहाने सपने सभी के मन को प्यारे
पर सपने यूँही सच होते है क्या सारे 
क्या इसका मुझे हो सकेगा अंदेश ?

स्वर्ग का सपना सभी को रहता है
पर स्वर्ग आज तक किसने देखा है
यह आजमाना है मुझको
जब मै करुँगी मै एक नया गृहप्रवेश 

एक जीवन की शुरवात है ये
ये है एक मेरे मन की बंदिश
एक स्त्री को तरल मन का सन्देश
दुल्हन बनूँगी मै 
हो जाएगा देस .... परदेस 
पराया होता ही है बाबुल का घर
अपनाउंगी  मै पिया का देस 

जयदीप भोगले 
२९/०६/९९


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