Monday, September 13, 2010

ठिकाना


कभी ख्वाबो में कभी खयालो में
कभी ढूंढती निगाहों में तुम रहती हो
पर हमने नहीं जाना की तुम कैसे लगती हो?





एक आवाज कानो में दस्तक दे जा रही है
एक आहट  सी  हर कदम पास आ रही है
पर हर पल इंतज़ार है तेरे वजूद का
क्या हकीकत में भी तुम इस जहाँ में बसती हो?

 तेरी जुल्फों के बादलों से अँधेरा सा छाया है
तेरी चेहरे की चांदनी से उजाला सा आया है
अब अँधेरा पाऊं या उजाला चाहूँ
क्या इसका जवाब तुम जानती हो?

आज क़ाफ़िर  खुशनसीब लगते है
मोहोब्बत नहीं तो बुत का दीदार तो पाते है
कहाँ ढूंढे तुम्हे इस जहाँ में
क्या तुम अपने ठिकाने का पता जानती हो?
जयदीप भोगले
१७-०२-२००३

No comments:

Post a Comment

एव्हरेस्ट

 ज्याचे त्याचे एव्हरेस्ट एव्हरेस्ट अस शिखर एकच नसतं प्रत्येक माणसाचं एव्हरेस्ट वेगळं असतं उंची कमी जास्त असेल समाजात शिखराची पण सर केल्यावरच...